Akbar (
Urdu:
جلال الدین
محمد اکبر ,
Hindi:
जलालुद्दीन
मुहम्मद अकबर,
Hunterian Jalāl ud-Dīn Muḥammad
Akbar), also known as
Shahanshah
Akbar-e-Azam or
Akbar the Great (14 October 1542 – 27 October
1605),
[2][3]
was the third
Mughal Emperor. He was of
Timurid descent; the son of Emperor
Humayun,
and the grandson of the Mughal Emperor Zaheeruddin Muhammad
Babur, the
ruler who founded the Mughal dynasty in India. At the end of his reign
in 1605 the Mughal empire covered most of the northern and central
India. He is most appreciated for having a liberal outlook on all faiths
and beliefs and during his era, culture and art reached to zenith as
compared to his predecessors.
Akbar was thirteen years old when he ascended the Mughal throne in
Delhi
(February 1556), following the death of his father Humayun.
[4]
During his reign, he eliminated military threats from the powerful
Pashtun descendants of
Sher Shah Suri, and at the
Second Battle of
Panipat he decisively defeated the newly self-declared Hindu king
Hemu.
[5][6]
It took him nearly two more decades to consolidate his power and bring
all the parts of northern and
central India into his direct realm. He influenced the
whole of the Indian Subcontinent as he ruled a greater part of it as an
emperor. As an emperor, Akbar solidified his rule by pursuing diplomacy
with the powerful
Hindu Rajput caste, and by marrying Rajput princesses.
[5][7]
Akbar's reign significantly influenced art and culture in the
country. He was a great patron of art and architecture
[8]
He took a great interest in painting, and had the walls of his palaces
adorned with
murals.
Besides encouraging the development of the
Mughal school, he also patronised the European style of
painting. He was fond of literature, and had several
Sanskrit
works translated into Persian and Persian scriptures translated in
Sanskrit apart from getting many Persian works illustrated by painters
from his court.
[8]
During the early years of his reign, he showed intolerant attitude
towards Hindus and other religions, but later exercised tolerance
towards non-Islamic faiths by rolling back some of the strict
sharia
laws.
[9][10][11]
His administration included numerous Hindu landlords, courtiers and
military generals. He began a series of religious debates where
Muslim scholars
would debate religious matters with
Hindus,
Jains,
Zoroastrians and
Portuguese Roman Catholic
Jesuits. He treated these religious leaders with
great consideration, irrespective of their faith, and revered them. He
not only granted lands and money for the mosques but the list of the
recipients included a huge number Hindu temples in north and central
India, Christian churches in Goa.
अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा।
[12]
उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की
भित्तियां सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं।
मुगल चित्रकारी का विकास
करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में
भी रुचि थी और उसने अनेक
संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का
फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का
संस्कृत व
हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति
से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया।
[12]
अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी,
किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों
में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध
भी बनाये।
[13][14][15]
अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने
धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी,
जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन,
सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक,
यहूदी,
पुर्तगाली एवं कैथोलिक
ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन
में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक
भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था।
[16]
उसने आगे चलकर एक नये धर्म
दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के
सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये
धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया।
[9][17]
इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार
के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग
बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप
सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया।
[18
नाम
अकबर का जन्म
पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन
मोहम्मद अकबर रखा गया था।
बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और
अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। कहा जाता है कि
काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने बुरी
नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे।
[20]
किवदंती यह भी है कि भारत की जनता ने उनके सफल एवं कुशल शासन के लिए अकबर
नाम से सम्मानित किया था। अरबी भाषा मे अकबर शब्द का अर्थ "महान" या बड़ा
होता है।
आरंभिक
जीवन
अकबर का जन्म राजपूत शासक
राणा अमरसाल के महल उमेरकोट,
सिंध (वर्तमान
पाकिस्तान) में
२३ नवंबर,
१५४२ (
हिजरी अनुसार
रज्जब, ९४९ के चौथे दिन) हुआ था। यहां बादशाह हुमायुं
अपनी हाल की विवाहिता बेगम
हमीदा बानो बेगम के साथ शरण लिये हुए थे। इस
पुत्र का नाम हुमायुं ने एक बार स्वप्न में सुनाई दिये के अनुसार
जलालुद्दीन मोहम्मद रखा।
[2][21]
बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से था यानि उसके वंशज तैमूर
लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर
की धमनियों में एशिया की दो प्रसिद्ध जातियों,
तुर्क और
मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था हुमायुं को पश्तून नेता
शेरशाह सूरी के कारण
फारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा
था।
[22]
किन्तु अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया वरन
रीवां (वर्तमान
मध्य प्रदेश) के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में
छोड़ दिया था। अकबर की वहां के राजकुमार
राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवां का राजा
बना, के संग गहरी मित्रता हो गयी थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन
मित्र रहे। कालांतर में अकबर
सफ़ावी साम्राज्य (वर्तमान
अफ़गानिस्तान का भाग) में
अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्कारी के यहां रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों
कंधार में और फिर
१५४५ से
काबुल में रहा।
हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही
इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी। यद्यपि
सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार प्यार कुछ ज़्यादा ही
होता था। किंतु अकबर पढ़ लिख नहीं सका वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका। उसका
काफी समय आखेट, दौड़ व द्वंद्व, कुश्ती आदि में बीता, तथा शिक्षा में उसकी
रुचि नहीं रही। जब तक अकबर आठ वर्ष का हुआ, जन्म से लेकर अब तक उसके सभी
वर्ष भारी अस्थिरता में निकले थे जिसके कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा का सही
प्रबंध नहीं हो पाया था। अब हुमायूं का ध्यान इस ओर भी गया। लगभग नवम्बर,
१५४७ में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन
किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न
हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त
किया गया।मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना
बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल
कादिर को यह काम सौंपा गया।मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल
न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर
बाजी, घुड़सवारी, और कुत्ते पालने में अधिक थी।
[3]
किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह
सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था।
[23]
समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला,
स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं।
राजतिलक
शेरशाह सूरी के पुत्र
इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से
उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायुं ने
१५५५ में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी
सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी
ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही ४८
वर्ष की आयु में ही हुमायुं का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से
भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया।
[24][25]
तब अकबर के संरक्षक
बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ
समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया।
१४ फ़रवरी,
१५५६ को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से
दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये
सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही
हुआ। १३ वर्षीय अकबर का
कलनौर,
पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में
एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। ये मंच आज भी बना हुआ है।
[26][27]
उसे
फारसी भाषा में सम्राट के
लिये शब्द शहंशाह से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम खां के
संरक्षण में चला।
[
राज्य
का विस्तार
खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता
हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अंततः सफल हुए और वह सन्
१५५५ में
हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन्
१५५६ में राजधानी
दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और
गुरदासपुर के
कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का
राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव
उस पर
१५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल
काबुल से
दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं
भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन
आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का
विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया।
अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई।
[30]
इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान
पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए
अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा
लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन
शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में
ले ली। इसके फौरन बाद ही
हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके
सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ
गया कि
सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह
चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह
सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली
शासक
सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने
पंजाब चल पड़ा
दिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर
शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। कुछ प्रदेशो मे तो
अकबर के पहुंचने से पहले ही उसकी सेना पीछे हट जाती थी। अकबर की
अनुपस्थिति मे हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली और
आगरा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की।
६ अक्तूबर १५५६ को हेमु ने स्वयं को भारत का महाराजा घोषित कर
दिया। इसी के साथ दिल्ली मे हिंदू राज्य की पुनः स्थापना हुई।
- सत्ता की वापसी
दिल्ली की पराजय का समाचार जब अकबर को मिला तो उसने तुरन्त ही बैरम खान
से परामर्श कर के दिल्ली की तरफ़ कूच करने का इरादा बना लिया। अकबर के
सलाहकारो ने उसे
काबुल की शरण में जाने की सलाह दी। अकबर और हेमु की
सेना के बीच
पानीपत मे युद्ध हुआ। यह युद्ध
पानीपत का द्वितीय युद्ध के नाम से
प्रसिद्ध है। संख्या में कम होते हुए भी अकबर ने इस युद्ध मे विजय प्राप्त
की। इस विजय से अकबर को १५०० हाथी मिले जो मनकोट के हमले में सिकंदर शाह
सूरी के विरुद्ध काम आए।
सिकंदर शाह सूरी ने आत्मसमर्पण कर दिया और
अकबर ने उसे प्राणदान दे दिया।
- चहुँओर विस्तार
दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना
शुरू किया और
मालवा को
१५६२ में,
गुजरात को
१५७२ में,
बंगाल को
१५७४ में,
काबुल को
१५८१ में,
कश्मीर को
१५८६ में, और
खानदेश को
१६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन
राज्यों में एक एक राज्यपाल नियुक्त किया। अकबर यह नही चाहता था की मुग़ल
साम्राज्य का केन्द्र
दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय
लिया की मुग़ल राजधानी को
फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए
जो साम्राज्य के मध्य में थी। कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर
सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था।
फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में
घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव
हुआ। सन
१५८५ में उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए
अकबर ने
लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने
सन
१५९९ में वापस आगरा को राजधानी बनाया और अंत तक यहीं से
शासन संभाला।