Tuesday, 24 January 2012

biography of humayu

Nasir ud-din Muhammad Humayun (Persian: نصیر الدین محمد همایون; full title: Al-Sultan al-'Azam wal Khaqan al-Mukarram, Jam-i-Sultanat-i-haqiqi wa Majazi, Sayyid al-Salatin, Abu'l Muzaffar Nasir ud-din Muhammad Humayun Padshah Ghazi, Zillu'llah; OS 7 March 1508–OS 22 February 1556) was the second Mughal Emperor who ruled present day Afghanistan, Pakistan, and parts of northern India from 1530–1540 and again from 1555–1556. Like his father, Babur, he lost his kingdom early, but with Persian aid, he eventually regained an even larger one. On the eve of his death in 1556, the Mughal empire spanned almost one million square kilometers.
He succeeded his father in India in 1530, while his half-brother Kamran Mirza, who was to become a rather bitter rival, obtained the sovereignty of Kabul and Lahore, the more northern parts of their father's empire. He originally ascended the throne at the age of 22 and was somewhat inexperienced when he came to power.
Humayun lost Mughal territories to the Pashtun noble, Sher Shah Suri, and, with Persian aid, regained them 15 years later. Humayun's return from Persia, accompanied by a large retinue of Persian noblemen, signaled an important change in Mughal court culture, as the Central Asian origins of the dynasty were largely overshadowed by the influences of Persian art, architecture, language and literature and also there are many stone carved and Persian language In India from the time of humayun also thousands of Persian manuscript in India..
Subsequently, in a very short time, Humayun was able to expand the Empire further, leaving a substantial legacy for his son, Akbar. His peaceful personality, patience and non-provocative methods of speech earned him the title Insan-i-Kamil, among the Mughals.

हुमायूँनामा




हुमायूँ की जीवनी का नाम हुमायूँनामा है जो उनकी बहन गुलबदन बेग़म ने लिखी है। इसमें हुमायूँ को काफी विनम्र स्वभाव का बताया गया है और इस जीवनी के तरीके से उन्होंने हुमायूँ को क्रोधित और उकसाने की कोशिश भी की है।

biography of Ajatasatru




Ajatasatru (Sanskrit अजातशत्रु; ruled c. 491 BC – c. 461 BC) was a king of the Magadha empire in north India. He was the son of King Bimbisara, the great monarch of Magadha. He was contemporary to Mahavira and Buddha. He took over the kingdom of Magadha from his father forcefully by imprisoning him. He fought a terrible war against the Vajjis/Lichhvis and conquered the once considered invincible democratic Vaishali Republic.
अजातशत्रु (लगभग 495 ई. पू.) मगध का एक प्रतापी सम्राट और बिंबिसार का पुत्र जिसने पिता को मारकर राज्य प्राप्त किया। उसने अंग, लिच्छवि, वज्जी, कोसल तथा काशी जनपदों को अपने राज्य में मिलाकर एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की।
पालि ग्रंथों में अजातशत्रु का नाम अनेक स्थानों पर आया है; क्योंकि वह बुद्ध का समकालीन था और तत्कालीन राजनीति में उसका बड़ा हाथ था। गंगा और सोन के संगम पर पाटलिपुत्र की स्थापना उसी ने की थी। उसका मंत्री वस्सकार कुशल राजनीतिज्ञ था जिसने लिच्छवियों में फूट डालकर साम्राज्य का विस्तार किया था। कोसल के राजा प्रसेनजित को हराकर अजातशत्रु ने राजकुमारी वजिरा से विवाह किया था जिससे काशी जनपद स्वतः यौतुक रूप में उसे प्राप्त हो गया था। इस प्रकार उसकी इस विजिगीषु नीति से मगध शक्तिशाली राष्ट्र बन गया। परंतु पिता की हत्या करने के कारण इतिहास में वह सदा अभिशप्त रहा। प्रसेनजित का राज्य कोसल के राजकुमार विडूडभ ने छीन लिया था। उसके राजत्वकाल में ही विडूडभ ने शाक्य प्रजातंत्र का ध्वंस किया था।
अजातशत्रु के समय की सबसे महान घटना बुद्ध का महापरिनिर्वाण थी (464 ई. पू.)। उस घटना के अवसर पर बुद्ध की अस्थि प्राप्त करने के लिए अजात शत्रु ने भी प्रयत्न किया था और अपना अंश प्राप्त कर उसने राजगृह की पहाड़ी पर स्तूप बनवाया। आगे चलकर राजगृह में ही वैभार पर्वत की सप्तपर्णी गुहा से बौद्ध संघ की प्रथम संगीति हुई जिसमें सुत्तपिटक और विनयपिटक का संपादन हुआ। यह कार्य भी इसी नरेश के समय में संपादित हुआ।---[अंकुर आनन्द मिश्र]

biography of babur





Zahir-ud-din Muhammad Babur (February 14, 1483 – December 26, 1530), also spelled Baber or Babar, was a Turko-Mongol Muslim conqueror from Central Asia who, following a series of setbacks, finally succeeded in laying the basis for the Mughal dynasty in South Asia. He was a direct descendant of Timur through his father, and a descendant also of Genghis Khan through his mother.[1] Babur identified his lineage as Timurid and Chaghatay-Turkic, while his origin, milieu, training, and culture were steeped in Persian culture and so he was largely responsible for the fostering of this culture by his descendants, and for the expansion of Persian cultural influence in the Indian subcontinent, with brilliant literary, artistic, and historiographical results.[2][3]

बाबर का जन्म फ़रगना घाटी के अंदिजन नामक शहर में हुआ था जो अब उज्बेकिस्तान में है। वो अपने पिता उमर शेख़ मिर्ज़ा, जो फरगना घाटी के शासक थे तथा जिसको उसने एक ठिगने कद के तगड़े जिस्म, मांसल चेहरे तथा गोल दाढ़ी वाले व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है, तथा माता कुतलुग निगार खानम का ज्येष्ठ पुत्र था। हालाँकि बाबर का मूल मंगोलिया के बर्लास कबीले से सम्बन्धित था पर उस कबाले के लोगों पर फारसी तथा तुर्क जनजीवन का बहुत असर रहा था, वे इस्लाम में परिवर्तित हुए तथा उन्होने तुर्केस्तान को अपना वासस्थान बनाया। बाबर की मातृभाषा चागताई भाषा थी पर फ़ारसी, जो उस समय उस स्थान की आम बोलचाल की भाषा थी, में भी वो प्रवीण था। उसने चागताई में बाबरनामा के नाम से अपनी जीवनी लिखी।
मंगोल जाति (जिसे फ़ारसी में मुगल कहते थे) का होने के बावजूद उसकी जनता और अनुचर तुर्क तथा फ़ारसी लोग थे। उसकी सेना में तुर्क, फारसी, पश्तो के अलावा बर्लास तथा मध्य एशियाई कबीले के लोग भी थे।
कहा जाता है कि बाबर बहुत ही तगड़ा और शक्तिशाली था। ऐसा भी कहा जाता है कि सिर्फ़ व्यायाम के लिए वो दो लोगों को अपने दोनो कंधों पर लादकर उन्नयन ढाल पर दौड़ लेता था। लोककथाओं के अनुसार बाबर अपने राह में आने वाले सभी नदियों को तैर कर पार करता था। उसने गंगा को दो बार तैर कर पार किया।[1]

[संपादित करें] नाम

बाबर के चचेरे भाई मिर्ज़ा मुहम्मद हैदर ने लिखा है कि उस समय, जब चागताई लोग असभ्य तथा असंस्कृत थे तब उन्हे ज़हिर उद-दिन मुहम्मद का उच्चारण कठिन लगा। इस कारण उन्होंने इसका नाम बाबर रख दिया।

सैन्य जीवन

सन् १४९४ में ११ वर्ष की आयु में ही उसे फ़रगना घाटी के शासक का पद सौंपा गया। उसके चाचाओं ने इस स्थिति का फ़ायदा उठाया और बाबर को गद्दी से हटा दिया। कई सालों तक उसने निर्वासन में जीवन बिताया जब उसके साथ कुछ किसान और उसके सम्बंधी ही थे। १४९७ में उसने उज़्बेक शहर समरकंद पर आक्रमण किया और ७ महीनों के बाद उसे जीत भी लिया। इसी बीच, जब वह समरकंद पर आक्रमण कर रहा था तब, उसके एक सैनिक सरगना ने फ़रगना पर अपना अधिपत्य जमा लिया। जब बाबर इसपर वापस अधिकार करने फ़रगना आ रहा था तो उसकी सेना ने समरकंद में उसका साथ छोड़ दिया जिसके फलस्वरूप समरकंद और फ़रगना दोनों उसके हाथों से चले गए। सन् १५०१ में उसने समरकंद पर पुनः अधिकार कर लिया पर जल्द ही उसे उज़्बेक ख़ान मुहम्मद शायबानी ने हरा दिया और इस तरह समरकंद, जो उसके जीवन की एक बड़ी ख्वाहिश थी, उसके हाथों से फिर वापस निकल गया।
फरगना से अपने चन्द वफ़ादार सैनिकों के साथ भागने के बाद अगले तील सालों तक उसने अपनी सेना बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया। इस क्रम में उसने बड़ी मात्रा में बदख़्शान प्रांत के ताज़िकों को अपनी सेना में भर्ती किया। सन् १५०४ में हिन्दूकुश की बर्फ़ीली चोटियों को पार करके उसने काबुल पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। नए साम्राज्य के मिलने से उसने अपनी किस्मत के सितारे खुलने के सपने देखे। कुछ दिनों के बाद उसने हेरात के एक तैमूरवंशी हुसैन बैकरह, जो कि उसका दूर का रिश्तेदार भी था, के साथ मुहम्मद शायबानी के विरुद्ध सहयोग की संधि की। पर १५०६ में हुसैन की मृत्यु के कारण ऐसा नहीं हो पाया और उसने हेरात पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। पर दो महीनों के भीतर ही, साधनों के अभाव में उसे हेरात छोड़ना पड़ा। अपनी जीवनी में उसने हेरात को "बुद्धिजीवियों से भरे शहर" के रूप में वर्णित किया है। वहाँ पर उसे युईगूर कवि मीर अली शाह नवाई की रचनाओं के बारे में पता चला जो चागताई भाषा को साहित्य की भाषा बनाने के पक्ष में थे। शायद बाबर को अपनी जीवनी चागताई भाषा में लिखने की प्रेरणा उन्हीं से मिली होगी।
काबुल लौटने के दो साल के भीतर ही एक और सरगना ने उसके ख़िलाफ़ विद्रोह किया और उसे काबुल से भागना पड़ा। जल्द ही उसने काबुल पर पुनः अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इधर सन् १५१० में फ़ारस के शाह इस्माईल प्रथम, जो सफ़ीवी वंश का शासक था, ने मुहम्मद शायबानी को हराकर उसकी हत्या कर डाली। इस स्थिति को देखकर बाबर ने हेरात पर पुनः नियंत्रण स्थापित किया। इसके बाद उसने शाह इस्माईल प्रथम के साथ मध्य एशिया पर मिलकर अधिपत्य जमाने के लिए एक समझौता किया। शाह इस्माईल की मदद के बदले में उमने साफ़वियों की श्रेष्ठता स्वीकार की तथा खुद एवम् अपने अनुयायियों को साफ़वियों की प्रभुता के अधीन समझा। इसके उत्तर में शाह इस्माईल ने बाबर को उसकी बहन ख़ानज़दा से मिलाया जिसे शायबानी, जिसे शाह इस्माईल ने हाल ही में हरा कर मार डाला था, ने कैद में रख़ा हुआ था और उससे विवाह करने की बलात कोशिश कर रहा था। शाह ने बाबर को ऐश-ओ-आराम तथा सैन्य हितों के लिये पूरी सहायता दी जिसका ज़बाब बाबर ने अपने को शिया परम्परा में ढाल कर दिया। उसने शिया मुसलमानों के अनुरूप वस्त्र पहनना आरंभ किया। शाह इस्माईल के शासन काल में फ़ारस शिया मुसलमानों का गढ़ बन गया और वो अपने आप को सातवें शिया इमाम मूसा अल क़ाज़िम का वंशज मानता था। वहाँ सिक्के शाह के नाम में ढलते थे तथा मस्ज़िद में खुतबे शाह के नाम से पढ़े जाते थे हालाँकि क़ाबुल में सिक्के और खुतबे बाबर के नाम से ही थे। बाबर समरकंद का शासन शाह इस्माईल के सहयोगी की हैसियत से चलाता था।
शाह की मदद से बाबर ने बुखारा पर चढ़ाई की। वहाँ पर बाबर, एक तैमूरवंशी होने के कारण, लोगों की नज़र में उज़्बेकों से मुक्तिदाता के रूप में देखा गया और गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए। इसके बाद फारस के शाह की मदद को अनावश्यक समझकर उसने शाह की सहायता लेनी बंद कर दी। अक्टूबर १५११ में उसने समरकंद पर चढ़ाई की और एक बार फिर उसे अपने अधीन कर लिया। वहाँ भी उसका स्वागत हुआ और एक बार फिर गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए। वहाँ सुन्नी मुलसमानों के बीच वह शिया वस्त्रों में एकदम अलग लग रहा था। हालाँकि उसका शिया हुलिया सिर्फ़ शाह इस्माईल के प्रति साम्यता को दर्शाने के लिए थी, उसने अपना शिया स्वरूप बनाए रखा। यद्यपि उसने फारस के शाह को खुश करने हेतु सुन्नियों का नरसंहार नहीं किया पर उसने शिया के प्रति आस्था भी नहीं छोड़ी जिसके कारण जनता में उसके प्रति भारी अनास्था की भावना फैल गई। इसके फलस्वरूप, ८ महीनों के बाद, उज्बेकों ने समरकंद पर फिर से अधिकार कर लिया।

उत्तर भारत पर चढ़ाई

दिल्ली सल्तनत पर ख़िलज़ी राजवंश के पतन के बाद अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। तैमूरलंग के आक्रमण के बाद सैय्यदों ने स्थिति का फ़ायदा उठाकर दिल्ली की सत्ता पर अधिपत्य कायम कर लिया। तैमुर लंग के द्वारा पंजाब का शासक बनाए जाने के बाद खिज्र खान ने इस वंश की स्थापना की थी। बाद में लोदी राजवंश के अफ़ग़ानों ने सैय्यदों को हरा कर सत्ता हथिया ली थी।

अन्तिम दिन

कहा जाता है कि अपने पुत्र हुमायुं के बीमार पड़ने पर उसने अल्लाह से हुमायुँ को स्वस्थ्य करने तथा उसकी बीमारी खुद को दिये जाने की प्रार्थना की थी। इसके बाद बाबर का स्वास्थ्य बिगड़ गया और अंततः वो १५३० में ४८ वर्ष की उम्र में मर गया। उसकी इच्छा थी कि उसे काबुल में दफ़नाया जाए पर पहले उसे आगरा में दफ़नाया गया। लगभग नौ वर्षों के बाद शेरशाह सूरी ने उसकी इच्छा पूरी की और उसे काबुल में दफ़ना दिया।[2]

biography of akbar

Akbar (Urdu: جلال الدین محمد اکبر , Hindi: जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर, Hunterian Jalāl ud-Dīn Muḥammad Akbar), also known as Shahanshah Akbar-e-Azam or Akbar the Great (14 October 1542  – 27 October 1605),[2][3] was the third Mughal Emperor. He was of Timurid descent; the son of Emperor Humayun, and the grandson of the Mughal Emperor Zaheeruddin Muhammad Babur, the ruler who founded the Mughal dynasty in India. At the end of his reign in 1605 the Mughal empire covered most of the northern and central India. He is most appreciated for having a liberal outlook on all faiths and beliefs and during his era, culture and art reached to zenith as compared to his predecessors.
Akbar was thirteen years old when he ascended the Mughal throne in Delhi (February 1556), following the death of his father Humayun.[4] During his reign, he eliminated military threats from the powerful Pashtun descendants of Sher Shah Suri, and at the Second Battle of Panipat he decisively defeated the newly self-declared Hindu king Hemu.[5][6] It took him nearly two more decades to consolidate his power and bring all the parts of northern and central India into his direct realm. He influenced the whole of the Indian Subcontinent as he ruled a greater part of it as an emperor. As an emperor, Akbar solidified his rule by pursuing diplomacy with the powerful Hindu Rajput caste, and by marrying Rajput princesses.[5][7]
Akbar's reign significantly influenced art and culture in the country. He was a great patron of art and architecture [8] He took a great interest in painting, and had the walls of his palaces adorned with murals. Besides encouraging the development of the Mughal school, he also patronised the European style of painting. He was fond of literature, and had several Sanskrit works translated into Persian and Persian scriptures translated in Sanskrit apart from getting many Persian works illustrated by painters from his court.[8] During the early years of his reign, he showed intolerant attitude towards Hindus and other religions, but later exercised tolerance towards non-Islamic faiths by rolling back some of the strict sharia laws.[9][10][11] His administration included numerous Hindu landlords, courtiers and military generals. He began a series of religious debates where Muslim scholars would debate religious matters with Hindus, Jains, Zoroastrians and Portuguese Roman Catholic Jesuits. He treated these religious leaders with great consideration, irrespective of their faith, and revered them. He not only granted lands and money for the mosques but the list of the recipients included a huge number Hindu temples in north and central India, Christian churches in Goa.
अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। [12] उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियां सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। [12] अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। [13][14][15] अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। [16] उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया।[9][17]
इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया।[18

नाम

अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। कहा जाता है कि काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे। [20] किवदंती यह भी है कि भारत की जनता ने उनके सफल एवं कुशल शासन के लिए अकबर नाम से सम्मानित किया था। अरबी भाषा मे अकबर शब्द का अर्थ "महान" या बड़ा होता है।

आरंभिक जीवन

अकबर का जन्म राजपूत शासक राणा अमरसाल के महल उमेरकोट, सिंध (वर्तमान पाकिस्तान) में २३ नवंबर, १५४२ (हिजरी अनुसार रज्जब, ९४९ के चौथे दिन) हुआ था। यहां बादशाह हुमायुं अपनी हाल की विवाहिता बेगम हमीदा बानो बेगम के साथ शरण लिये हुए थे। इस पुत्र का नाम हुमायुं ने एक बार स्वप्न में सुनाई दिये के अनुसार जलालुद्दीन मोहम्मद रखा।[2][21] बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से था यानि उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की धमनियों में एशिया की दो प्रसिद्ध जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था हुमायुं को पश्तून नेता शेरशाह सूरी के कारण फारस में अज्ञातवास बिताना पड़ रहा था। [22] किन्तु अकबर को वह अपने संग नहीं ले गया वरन रीवां (वर्तमान मध्य प्रदेश) के राज्य के एक ग्राम मुकुंदपुर में छोड़ दिया था। अकबर की वहां के राजकुमार राम सिंह प्रथम से, जो आगे चलकर रीवां का राजा बना, के संग गहरी मित्रता हो गयी थी। ये एक साथ ही पले और बढ़े और आजीवन मित्र रहे। कालांतर में अकबर सफ़ावी साम्राज्य (वर्तमान अफ़गानिस्तान का भाग) में अपने एक चाचा मिर्ज़ा अस्कारी के यहां रहने लगा। पहले वह कुछ दिनों कंधार में और फिर १५४५ से काबुल में रहा। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर की स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी। यद्यपि सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार प्यार कुछ ज़्यादा ही होता था। किंतु अकबर पढ़ लिख नहीं सका वह केवल सैन्य शिक्षा ले सका। उसका काफी समय आखेट, दौड़ व द्वंद्व, कुश्ती आदि में बीता, तथा शिक्षा में उसकी रुचि नहीं रही। जब तक अकबर आठ वर्ष का हुआ, जन्म से लेकर अब तक उसके सभी वर्ष भारी अस्थिरता में निकले थे जिसके कारण उसकी शिक्षा-दीक्षा का सही प्रबंध नहीं हो पाया था। अब हुमायूं का ध्यान इस ओर भी गया। लगभग नवम्बर, १५४७ में उसने अकबर की शिक्षा प्रारंभ करने के लिए काबुल में एक आयोजन किया। किंतु ऐन मौके पर अकबर के खो जाने पर वह समारोह दूसरे दिन सम्पन्न हुआ। मुल्ला जादा मुल्ला असमुद्दीन अब्राहीम को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया।मगर मुल्ला असमुद्दीन अक्षम सिद्ध हुए। तब यह कार्य पहले मौलाना बामजीद को सौंपा गया, मगर जब उन्हें भी सफलता नहीं मिली तो मौलाना अब्दुल कादिर को यह काम सौंपा गया।मगर कोई भी शिक्षक अकबर को शिक्षित करने में सफल न हुआ। असल में, पढ़ने-लिखने में अकबर की रुचि नहीं थी, उसकी रुचि कबूतर बाजी, घुड़सवारी, और कुत्ते पालने में अधिक थी।[3] किन्तु ज्ञानोपार्जन में उसकी रुचि सदा से ही थी। कहा जाता है, कि जब वह सोने जाता था, एक व्यक्ति उसे कुछ पढ़ कर सुनाता रह्ता था।[23] समय के साथ अकबर एक परिपक्व और समझदार शासक के रूप में उभरा, जिसे कला, स्थापत्य, संगीत और साहित्य में गहरी रुचि रहीं।

राजतिलक

शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह के उत्तराधिकार के विवादों से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठा कर हुमायुं ने १५५५ में दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। इसमें उसकी सेना में एक अच्छा भाग फारसी सहयोगी ताहमस्प प्रथम का रहा। इसके कुछ माह बाद ही ४८ वर्ष की आयु में ही हुमायुं का आकस्मिक निधन अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से भारी नशे की हालात में गिरने के कारण हो गया।[24][25] तब अकबर के संरक्षक बैरम खां ने साम्राज्य के हित में इस मृत्यु को कुछ समय के लिये छुपाये रखा और अकबर को उत्तराधिकार हेतु तैयार किया। १४ फ़रवरी, १५५६ को अकबर का राजतिलक हुआ। ये सब मुगल साम्राज्य से दिल्ली की गद्दी पर अधिकार की वापसी के लिये सिकंदर शाह सूरी से चल रहे युद्ध के दौरान ही हुआ। १३ वर्षीय अकबर का कलनौर, पंजाब में सुनहरे वस्त्र तथा एक गहरे रंग की पगड़ी में एक नवनिर्मित मंच पर राजतिलक हुआ। ये मंच आज भी बना हुआ है।[26][27] उसे फारसी भाषा में सम्राट के लिये शब्द शहंशाह से पुकारा गया। वयस्क होने तक उसका राज्य बैरम खां के संरक्षण में चला।[

राज्य का विस्तार

खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये अकबर के पिता हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अंततः सफल हुए और वह सन्‌ १५५५ में हिंदुस्तान पहुँच सका किंतु अगले ही वर्ष सन्‌ १५५६ में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई और गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर १४ वर्ष की आयु में अकबर का राजतिलक हुआ। अकबर का संरक्षक बैराम खान को नियुक्त किया गया जिसका प्रभाव उस पर १५६० तक रहा। तत्कालीन मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। इसके साथ ही अनेक समस्याएं भी सिर उठाये खड़ी थीं। १५६३ में शम्सुद्दीन अतका खान की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, १५६४-६५ के बीच उज़बेक विद्रोह और १५६६-६७ में मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह भी था, किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई।[30] इसी बीच १५६६ में महाम अंका नामक उसकी धाय के बनवाये मदरसे (वर्तमान पुराने किले परिसर में) से शहर लौटते हुए अकबर पर तीर से एक जानलेवा हमला हुआ, जिसे अकबर ने अपनी फुर्ती से बचा लिया, हालांकि उसकी बांह में गहरा घाव हुआ। इस घटना के बाद अकबर की प्रशसन शैली में कुछ बदलाव आया जिसके तहत उसने शासन की पूर्ण बागडोर अपने हाथ में ले ली। इसके फौरन बाद ही हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी। अपने शासन के आरंभिक काल में ही अकबर यह समझ गया कि सूरी वंश को समाप्त किए बिना वह चैन से शासन नहीं कर सकेगा। इसलिए वह सूरी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक सिकंदर शाह सूरी पर आक्रमण करने पंजाब चल पड़ा
दिल्ली का शासन उसने मुग़ल सेनापति तारदी बैग खान को सौंप दिया। सिकंदर शाह सूरी अकबर के लिए बहुत बड़ा प्रतिरोध साबित नही हुआ। कुछ प्रदेशो मे तो अकबर के पहुंचने से पहले ही उसकी सेना पीछे हट जाती थी। अकबर की अनुपस्थिति मे हेमू विक्रमादित्य ने दिल्ली और आगरा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। ६ अक्तूबर १५५६ को हेमु ने स्वयं को भारत का महाराजा घोषित कर दिया। इसी के साथ दिल्ली मे हिंदू राज्य की पुनः स्थापना हुई।
सत्ता की वापसी



दिल्ली की पराजय का समाचार जब अकबर को मिला तो उसने तुरन्त ही बैरम खान से परामर्श कर के दिल्ली की तरफ़ कूच करने का इरादा बना लिया। अकबर के सलाहकारो ने उसे काबुल की शरण में जाने की सलाह दी। अकबर और हेमु की सेना के बीच पानीपत मे युद्ध हुआ। यह युद्ध पानीपत का द्वितीय युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। संख्या में कम होते हुए भी अकबर ने इस युद्ध मे विजय प्राप्त की। इस विजय से अकबर को १५०० हाथी मिले जो मनकोट के हमले में सिकंदर शाह सूरी के विरुद्ध काम आए। सिकंदर शाह सूरी ने आत्मसमर्पण कर दिया और अकबर ने उसे प्राणदान दे दिया।
चहुँओर विस्तार
दिल्ली पर पुनः अधिकार जमाने के बाद अकबर ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और मालवा को १५६२ में, गुजरात को १५७२ में, बंगाल को १५७४ में, काबुल को १५८१ में, कश्मीर को १५८६ में, और खानदेश को १६०१ में मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। अकबर ने इन राज्यों में एक एक राज्यपाल नियुक्त किया। अकबर यह नही चाहता था की मुग़ल साम्राज्य का केन्द्र दिल्ली जैसे दूरस्थ शहर में हो; इसलिए उसने यह निर्णय लिया की मुग़ल राजधानी को फतेहपुर सीकरी ले जाया जाए जो साम्राज्य के मध्य में थी। कुछ ही समय के बाद अकबर को राजधानी फतेहपुर सीकरी से हटानी पड़ी। कहा जाता है कि पानी की कमी इसका प्रमुख कारण था। फतेहपुर सीकरी के बाद अकबर ने एक चलित दरबार बनाया जो कि साम्राज्य भर में घूमता रहता था इस प्रकार साम्राज्य के सभी कोनो पर उचित ध्यान देना सम्भव हुआ। सन १५८५ में उत्तर पश्चिमी राज्य के सुचारू राज पालन के लिए अकबर ने लाहौर को राजधानी बनाया। अपनी मृत्यु के पूर्व अकबर ने सन १५९९ में वापस आगरा को राजधानी बनाया और अंत तक यहीं से शासन संभाला।

biography of jhansi ki rani

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई (१९ नवंबर १८२८१७ जून १८५८) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। इनका जन्म वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में हुआ था। इनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर प्यार से मनु कहा जाता था। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी ब्राह्मण थे और मराठा पेशवा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थीं तब उनकी माँ की म्रत्यु हो गयी। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। [1]
सन १८४२ में इनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन १८५१ में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन १८५३ में राजा गंगाधर राव का बहुत अधिक स्वास्थ्य बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की मृत्यु २१ नवंबर १८५३ में हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।[2]

Early life

Originally named Manikarnika and nicknamed Manu, Lakshmibai was born at Kashi (Varanasi)[1] to Moropant Tambe and Bhagirathibai Tambe, a Maharashtrian Karhade Brahmin[citation needed] couple. She lost her mother at the age of four. Her father worked at the Peshwa court of Bithoor; the Peshwa brought her up like his own daughter, and called her "Chhabili" for her light-heartedness. She was educated at home.
Because of her father's influence at court, Lakshmibai had more independence than most women, who were normally restricted to the zenana. She studied self-defence, horsemanship, archery, and even formed her own army out of her female friends at court. Tatya Tope, who would later come to her rescue during the 1857 Rebellion, was her mentor.
Lakshmibai was married to Raja Gangadhar Rao Newalkar, the Maharaja of Jhansi, in 1842, and thus became the queen of Jhansi. After their marriage, she was given the name Lakshmibai. The Raja was very affectionate towards her. She[2] gave birth to a son, Damodar Rao, in 1851. However, the child died when he was about four months old. After the death of their son, the Raja and Rani of Jhansi adopted Anand Rao. Anand Rao was the son of Gangadhar Rao's cousin, and was later renamed as Damodar Rao. However, it is said that the Raja of Jhansi never recovered from his son's death, and he died on 21 November 1853.
Because Damodar Rao was adopted, the British East India Company, under Governor-General Lord Dalhousie, applied the Doctrine of Lapse, rejecting Rao's claim to the throne and annexing the state to its territories. In March 1854, Lakshmibai was given a pension of 60,000 rupees and ordered to leave the palace and the Jhansi fort.
On May 10, 1857 the Indian Rebellion started in Meerut. This began after the rumour that the new bullet casings for the Enfield rifles were coated with pork and beef fat and unrest began to spread throughout India. During this chaotic time, the British were forced to focus their attentions elsewhere, and Lakshmibai was essentially left to rule Jhansi alone, leading her troops swiftly and efficiently to quell skirmishes initiated by local princes. With the city relatively calm and peaceful in the midst of the unrest in northern India, she conducted the Haldi Kumkum ceremony with great pomp and ceremony before all the women of Jhansi to provide assurance to her subjects and to convince them that the city was under no threat of an attack.[3]
Up to this point, Lakshmibai had been hesitant to rebel against the British, and there is still some controversy over her role in the massacre of Company officials, their wives and children on 8 June 1857 at Jokhan Bagh.[4] Her hesitation finally ended when British troops arrived under Sir Hugh Rose and laid siege to Jhansi on 23 March 1858. An army of 20,000, headed by Tatya Tope, was sent to relieve Jhansi but failed to do so when his forces engaged with the British on 31 March. Three days later the besiegers were able to breach the walls and capture the city. The Rani escaped by night with her son, surrounded by her guards, many of them women.[4]






Statue of Rani Laxmi Bai in Agra
Along with the young Anand Rao, the Rani decamped to Kalpi along with her troops, where she joined other rebel forces, including those of Tatya Tope. The two moved on to Gwalior, where the combined rebel forces defeated the army of the Maharaja of Gwalior after his armies deserted the rebel forces. They then occupied a strategic fort at Gwalior. However, on 17 June 1858,[5] while battling in full warrior regalia against the 8th (King's Royal Irish) Hussars in Kotah-ki Serai near the Phool Bagh area of Gwalior, she died. The British captured Gwalior three days later. In the British report of the battle, General Sir Hugh Rose commented that the Rani, "remarkable for her beauty, cleverness and perseverance", had been "the most dangerous of all the rebel leaders".[6]
However, the lack of a corpse to be convincingly identified as that of Lakshmibai convinced Captain Rheese that she had not actually perished in the battle for Gwalior, stating publicly that: "[the] Queen of Jhansi is alive!".[7] It is believed her funeral was arranged on the same day near the spot where she was wounded. Lakshmibai was memorialized in bronze statues at Jhansi and Gwalior, both of which portray her on horseback. Other equestrian statues can be seen in Agra and Pune.
Her father, Moropant Tambey, was captured and hanged a few days after the fall of Jhansi. Her adopted son, Damodar Rao (formerly known as Anand Rao), fled with his mother's aides. Rao was later given a pension by the British Raj and cared for, although he never received his inheritance. Damodar Rao settled down in the city of Indore, and spent most of his life trying to convince the British to restore some of his rights. He and his descendants took on the last name Jhansiwale. He died on 28 May 1906, at the age of 58 years.

biography of raha bhoj

परमार भोज परमार वंश के नवें राजा थे। परमार (पवार(हिन्दी)/ पोवार(मराठी)) वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उसमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उसके जीवन का अधिकांश युद्धक्षेत्र में बीता तथापि उसने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उसने मालव के नगरों व ग्रामों में बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है। वह स्वयं बहुत विद्वान था और कहा जाता है कि उसने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषध-शास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं जो अब भी वर्तमान हैं। इसके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। इसने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया। सरस्वतीकंठाभरण उनकी प्रसिद्ध रचना है।

Biography

Raja Bhoja ruled the Mālwa region from the beginning of the eleventh century to about 1055. His extensive writings cover philosophy, poetry, medicine, veterinary science, phonetics, yoga, and archery. Under his rule, Mālwa and its capital Dhar became one of the chief intellectual centres of India. King Bhoja, together with the Solanki king Bhima of Gujarat (Anhilwara), rebuilt the temple at Somnath between 1026 and 1042 after it was sacked by Mahmud of Ghazni in 1024. He founded the city Bhojpur. It is also said that Bhoja also founded the city of Bhopal[3], but it could be possible that the city was founded by another king of the same name. The Bhojtal (Upper Lake or bada talab) of Bhopal is said to have been constructed by Bhoja, but it is a natural lake and there is no evidence that it was constructed by Bhoja.[citation needed]

Career

The Paramaras were a subsidiary branch of the principal rulers belonging to the Rashtrakuta Dynasty, and were appointed as governors of central India in Malwa province by the latter. The Paramara dynasty based themselves primarily at Dhar in central India, a city which remained de facto capital until its ultimate conquest in the fourteenth century. It was there that their greatest king and a remarkable genius, Bhoja came to power by 1000 AD and ruled for about half a century. He was the son of Sindhurāja, who was a notable conqueror, who defeated the Chalukyas, Hunas and Shilaharas of the Konkan region. Bhoja's path was similar to other great Hindu rulers of the time engaged in wasteful internecine struggles for supremacy. We get some glimpses of his remarkable life from the apocryphal biography Bhoja Prabandham and depictions on temple walls. Early in his career, just before he came to power, Bhoja was afflicted by a tumor in his brain which used to cause him intense headaches. Two learned Brahmin brothers from the school of Ujjain, who were pre-eminent surgeons of the era, performed a surgery on his brain and relieved him of his tumor. The description of the surgery that survives suggests that they artificially induced a coma with a special preparation known as the sammohini and then opened his skull to remove the tumor. He was then brought back to consciousness with another drug.
Bhoja survived this surgery remarkably well and had an illustrious reign both as a military commander and encyclopaedic scholar. Bhoja long desired to reduce his arch-rivals the Chalukyas of the Deccan and initiated several successful campaigns again them. Then he tried a remarkable political game to destroy the Chalukyas: by forming an alliance with the Chola king Rajendra, Bhoja induced him to attack the Chalukyas from the south. Likewise he induced the Kalachuri king Kumara Gangeyadeva (who claimed descent from the Haihayas who had survived the ancient assault of the Bhargavas) to attack the Chalukyas from the east. Bhoja himself pressed on them from the north. For this purpose he erected the mighty fortifications of Māṇḍū and initially put the Chalukyas on the retreat. But the Chalukyas, suddenly reviving the glory that Pulakeshin-II had taken them to, remained firm in the 3-front war, eventually causing Bhoja's allies to give up. Someshvara, the Chalukya subsequently invaded the paramAra kingdom and stormed the fort of Mandu after a long siege, then took Ujjain, and finally captured Dhara the capital of Bhoja from him. Bhoja unfazed retreated north and with the help of Rajendra Chola who kept the pressure from the south, took back Dhara and Ujjain. Then Bhoja conquered Chitrakuta (Chittor) and Medhapatha (Mewar) from the Shishodias and established his sway over the Arbuda fort (Mount Abu).
Raja Bhoja then organized his armies to attack Sultan Mahmud Ghaznavi who had invaded Somnath. Ghaznavi fearing the powerful army of Bhoja retreated via the desert of Sindh to avoid a clash (reported by Turkic author Gardizi as Indian Padshah Parmar Dev) with the Indian king and lost many of his men. Bhoja repulsed the Ghazi Saiyyad Salar Masud who lead an army into India to conquer the northern India which his uncle, Sultan Mahmud Ghaznavi, had failed to conquer. Then Bhoja realizing the threat, organized a confederation of Indian kings including the Kalachuri Lakshmi-Karna, the Chahamana and other Rajputs to fight the Salar Masud. In the Battle of Bahraich the northern India confederacy fought a pitched battle for about a month with the Ghaznavi army and completely defeated them killing Salar Masud in the process. They then went on to conquer Hansi, Thaneshvar, Nagarkot and other cities taken by the Ghaznavids and marched against Lahore and besieged it. Just at the point Lahore was about to fall to them, the Indian kings had a disagreement over who would own the captured territories and their armies disbanded and dispersed in a huff. Bhoja started fighting other Indian kings who were his erstwhile allies in the war against the Ghaznavids.
Bhoja first defeated the Chahamanas of Shakambhari, but the Chahamanas of Naddula repulsed his attempt to take their kingdom. Bhoja next tried to seize the kingdom of the Chandellas, but they formed an alliance with the Rashtrakutas of Kannauj and Kachchapaghatas of Gwalior and repulsed him. Bhoja however, did keep the Ghaznavids in check with help from his Sishodia feudatories. Bhoja then seized the territory of the western Chalukya Bhima of Gujarat. Bhima unfazed by this formed an alliance with the Haihaya, LakshmI-Karna to attack Bhoja in a two-front war on both east and west. Bhoja was caught in the pincer grip, and while fighting his two enemies he was shot down by an arrow on the battle field. Thus, the great Raja Bhoja having spent his career in numerous campaigns had fallen like a true Kshatriya in the defense of his capital.
Hence its said that when he was alive the poets would say:
"Adya dhara sadadhara sadalamba sarasvati |
panditah manditah sarve bhoja Raje bhuvam gate ||"
(Today Dhara(land) is ever supported, and the Goddess Sarasvati is ever propped up. All the pundits are adorned with the coming of King Bhoja on this earth.)
When he fell in defending Dhara from his rivals they said:
"Adya dhara niradhara niralamba sarasvati |
panditahH khanditah sarve bhojaraje divam gate ||"
(Today Dhara(land) is unsupported, and the Goddess Sarasvati is without a prop. All the pundits are scattered with the ascent of king Bhoja to heaven.)

[edit] Bhoja the polymath

An analysis of Bhoja's military campaigns show that he was undoubtedly a good general in war and was studded with many major victories over rival Rajas and Islamic marauders. His military career was however, hardly any greater than his equally warlike and militarily successful contemporaries such as Rajendra Chola or Lakshmi-Karna Kalachuri or Someshvara Chalukya. Yet Raja Bhoja is remembered much more than any of these contemporaries of his and is often compared with the illustrious VikramAditya of the golden Gupta era. His name is a household one amongst all brought up in the Sanskritic culture.
The main reason for this is that Hindus have always remembered philosophers, poets and scholars much more than kings merely decorated with military success. A king who did good to the people was much more embedded in the collective memory of the Hindus than a king who conquered vast territories. Raja Bhoja definitely stood out in this regard as one of historical India's most remarkable intellectuals with an astonishing variety of interests and oceanic knowledge.
Bhoja constructed several spectacular temples, one of the most dramatic of which is seen in the form of the great temple of Shiva termed Bhojeshvara at Bhojpur about 30 km from Bhopal in Madhya Pradesh . Another notable construction, which is a historical civil engineering masterpiece, is the Bhoja lake which was built by daming and channelizing the Betwa river. He is also supposed to have paid great attention to the education of his people, so much so that even humble weavers in kingdom are supposed to have composed metrical Sanskrit kavyas.

Works

Raja Bhoja wrote 84 books during his life of which several survive. We shall summarize a few below to illustrate the remarkable breadth of his knowledge and originality:
  • Sarasvatīkaṇṭhabharaṇa: a treatise on Sanskrit grammar for poetic and rhetorical compositions. Some of the poetic examples provided by him in this work are still appreciated as the highest cream of Sanskrit poetry.
  • rAjamArtANda (pata~Njali yoga sUtra bhAshya): Major commentary on the Yoga Sutras of Patanjali, wherein the Raja clearly explains various forms of meditations such as savitarka, savichAra, sAnanda and sAsmita, which are critical for understanding the nature of cognition from the view point of yoga.
  • samarangaNa-sUtradhara: A treatise on civil engineering detailing construction of buildings, forts, temples, idols of deities and mechanical devices including a so called flying machine or glider. It is composed largely in the anuShTubh meter and in about 83 chapters.
  • tattva-prakAsha: A remarkable siddhAnta tantra work providing a synthesis of the entire ancient and voluminous literature of the siddhanta tantras of shiva. It was the basis of all subsequent developments of the siddhantic pAshupata streams that followed.
  • rasa-rAja-mR^igA~nka: A treatise on chemistry, especially dealing with the extraction of metals from ores, and production of various drugs.
  • yuktikalpataru: A treatise on construction of ships, classification of vessels suitable for rivers and seas, ship measurements, etc.
  • dharmashAstra vR^itti: A commentary on the Hindu legalistic literature.





  • champU rAmAyaNa: A re-narration of the rAmAyaNa in mixture of prose and poetry, which characterizes the champUs. The description of hanumat’s qualities are particularly poetic.

shah jahan









Shah Jahan (also spelled Shah Jehan, Shahjehan, Urdu: شاه ‌جہاں, Persian: شاه جهان) (January 5, 1592 – January 22, 1666) (Full title: His Imperial Majesty Al-Sultan al-'Azam wal Khaqan al-Mukarram, Malik-ul-Sultanat, Ala Hazrat Abu'l-Muzaffar Shahab ud-din Muhammad Shah Jahan I, Sahib-i-Qiran-i-Sani, Padshah Ghazi Zillu'llah, Firdaus-Ashiyani, Shahanshah—E--Sultanant Ul Hindiya Wal Mughaliya, Emperor of India ) was the emperor of the Mughal Empire in the Indian Subcontinent from 1628 until 1658. The name Shah Jahan comes from Persian meaning "King of the World." He was the fifth Mughal emperor after Babur, Humayun, Akbar, and Jahangir. While young, he was favourite of his legendary grandfather Akbar the Great. He is also called Shahjahan the Magnificent. Besides being a descendant of Genghis Khan, Emperor of Mongol Empire and Tamerlane, he is also a descendant of Emperor Charlemagne, the King of the Franks, King of the Lombards and the Emperor of the Romans.[2][3]
Even while very young, he was chosen as successor to the Mughal throne after the death of Emperor Jahangir. He succeeded to the throne upon his father's death in 1627. He is considered to be one of the greatest Mughals and his reign has been called the Golden Age of the Mughals and one of the most prosperous ages of the Indian civilization. Like Akbar, he too was eager to expand his vast empire. In 1658 he fell ill, and was confined by his son Emperor Aurangzeb in the Citadel of Agra until his death in 1666. On the eve of his death in 1666, he was one of the most powerful personalities on the earth and his Mughal Empire spanned almost 750,000,000 acres (3,000,000 km2) and he had in his empire the largest and most prosperous capital as well as some of the most spectacular architectural masterpieces in the world.
The period of his reign was the golden age of Mughal architecture. Shahanshah Shah Jahan erected many splendid monuments, the most famous of which is the legendary Taj Mahal at Agra built as a tomb for his wife, Empress Mumtaz Mahal. The Pearl Mosque and many other buildings in Agra, the Red Fort and the Jama Masjid Mosque in Delhi, mosques in Lahore, extensions to Lahore Fort and a mosque in Thatta also commemorate him. The famous Takht-e-Taus or the Peacock Throne, said to be worth millions of dollars by modern estimates, also dates from his reign. He was also the founder of the new imperial capital called Shahjahanabad, now known as Old Delhi. Other important buildings of Shah Jahan's rule were the Diwan-i-Am and Diwan-i-Khas in the Red Fort Complex in Delhi and the Pearl Mosque in the Lahore Fort. It is pointed out that the Palace of Delhi is the most magnificent in the East. Shah Jahan is also believed to have the most refined of the tastes in arts and architecture and is credited to have commissioned about 777 gardens in Kashmir, his favourite summer residence. Surprisingly, a few of these gardens survive even till date and attracts thousands of tourists every year